कभी-कभी जीवन हमें इतनी जोर से झटका देता है कि लगता है जैसे ज़मीन ही पैरों के नीचे से खिसक गई हो। जिन रिश्तों पर भरोसा था, वे साथ छोड़ जाते हैं। जिन सपनों को सीने से लगाए फिरते थे, वे चकनाचूर होकर आंखों के सामने बिखर जाते हैं। और जब हम चारों ओर नज़र दौड़ाते हैं — तो न कोई समझने वाला होता है, न कोई सहारा देने वाला। बस एक सन्नाटा होता है — ऐसा सन्नाटा जो बाहर ही नहीं, भीतर तक गूंजता है। यह खामोशी इतनी गहरी होती है कि जैसे भीतर की आवाज़ भी कहीं छिप सी जाती है… जैसे आत्मा भी चुप हो गई हो। 

 

अक्सर लोग मान लेते हैं कि यह अंत है — कि अब कुछ शेष नहीं रहा। लेकिन सच्चाई ये है कि यहीं से कुछ नया जन्म लेने को तैयार होता है। यह वही क्षण होता है जब जीवन, हमारी चेतना की ज़मीन को एक नई शुरुआत के लिए उपजाऊ बना रहा होता है। जब जीवन हमें भीतर से तोड़ता है, तब वह दरअसल हमारी आत्मा को गढ़ने की तैयारी में होता है। और इसी टूटन में — उसी आंतरिक निर्माण की प्रक्रिया में — हमारी असली पहचान आकार लेती है।

देखिए एक बीज को — जब तक वह पूरी तरह मिट्टी में दबा न हो, वह अंकुरित नहीं होता। उसी तरह, जो अंधकार आज आपको निगलता हुआ लगता है, वह दरअसल वही मिट्टी है जिसमें आपका नया जीवन पनपने वाला है।

ऐसा ही एक पल "अरण्य" नामक युवक के जीवन में आया था।

एक दिन उसके पास न नौकरी थी, न पैसा, और रिश्ते भी बस दीवार पर टंगी तस्वीरों की तरह बचे थे। उस रात वह अकेला, ठंडी हवा में कांपता हुआ, एक सुनसान रेलवे ट्रैक के किनारे बैठा था। उसके मन में सिर्फ एक सवाल था — “अब क्या?” जवाब में बस एक गहरा सन्नाटा।


तभी पास की झोपड़ी से किसी बुज़ुर्ग महिला की आवाज़ आई —

“बेटा, हवा कितनी भी तेज़ हो, अगर दीपक को बुझना नहीं है — तो वह नहीं बुझेगा। बल्कि अंधेरे में उसकी रोशनी और ज्यादा चमकती है।”

वो शब्द अरण्य के भीतर जैसे कोई बुझ चुकी लौ को फिर से जला गए। हालात वही थे, पर अब भीतर कोई बदलाव आ चुका था।

अगले ही दिन उसने स्टेशन पर यात्रियों को पुरानी किताबें बेचनी शुरू कीं। राह कठिन थी, लेकिन यहीं से उसकी नई यात्रा शुरू हुई। और पांच साल बाद उसी अरण्य ने अपना प्रकाशन संस्थान खोला और उसकी पहली किताब थी — “जब सब कुछ छूटता है, तब खुद से मुलाक़ात होती है।”

कहते हैं — जो अंधेरे से डर कर बैठ जाते हैं, वे खो जाते हैं। लेकिन जो अंधेरे में भी एक-एक कदम बढ़ाते हैं, वे अंततः सूरज की पहली किरण देखते हैं।

जीवन कभी थमता नहीं — हर ठहराव भीतर किसी नई गति की आहट लिए होता है, हर गिरावट एक गहरी उछाल की भूमिका बनती है, और हर टूटन… एक नई उड़ान की पहली दस्तक होती है। अंधेरा अंत नहीं, बल्कि वह परीक्षा-कक्ष है जहाँ आत्मा स्वयं से साक्षात्कार करती है। जहां सपने भले ही टूटते हैं, लेकिन दृष्टि पहले से कहीं अधिक स्पष्ट हो जाती है। जहां अहंकार गिरता है, वहीं आत्मबल उठ खड़ा होता है।

तो अगर आज आप टूटे हैं, थके हैं, अकेले हैं — तो समझिए, यह समय हार मानने का नहीं है। यह वह क्षण है जब जीवन आपको भीतर से फिर से गढ़ रहा है। वहां भीतर एक चिंगारी अब भी जीवित है — बस उसे छूने की देर है।

आप साधारण नहीं हैं — आप उस ब्रह्मांड का अंश हैं जो सितारों को जन्म देता है। और अगर सितारे रात में चमक सकते हैं, तो आप भी अपने अंधेरे को रोशन कर सकते हैं।

हर बार जब अंधकार गहराए — उसे कोसने के बजाय, खुद एक दीपक बनिए। वो दीपक जो न सिर्फ खुद को, बल्कि दूसरों को भी दिशा दे।

हर अंधकार एक प्रश्न है — क्या आप अब भी हार मानेंगे, या उस चिंगारी को प्रज्वलित करेंगे जो आपके भीतर कहीं शांत पड़ी है? और शायद… आज वही दिन है जब आप अपनी ही अग्नि से एक नया जीवन प्रकाशित कर सकते हैं।

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