
आज का युवा सबसे अधिक ऊर्जावान है, सबसे अधिक प्रतिभाशाली भी है, लेकिन शायद सबसे अधिक उलझा हुआ भी। एक ओर उसके पास तकनीक है, सूचना का महासागर है, सुविधाएं हैं — और दूसरी ओर उसके भीतर गहराता डर, अस्थिरता और दिशाहीनता जो उसे अंदर से तोड़ रही
है। वह जानता है कि उसमें सामर्थ्य है, वह कुछ कर दिखाना चाहता है — कोई वैज्ञानिक बनना चाहता है, कोई कलाकार, कोई आईएएस, कोई उद्यमी। लेकिन जब रास्ते में पहली हार आती है, पहली ठोकर लगती है, तो यही आत्मविश्वासी युवा अचानक खुद पर ही सवाल
उठाने लगता है। |
सोशल मीडिया पर चारों ओर सफलता की चमचमाती तस्वीरें हैं। कोई ऊँचे पद पर है, कोई विदेश में, कोई ब्रांडेड कपड़ों में मुस्कुरा रहा है। हर चेहरा सफलता से दमकता हुआ दिखता है। ऐसे में एक साधारण युवा — जिसकी नौकरी नहीं लगी, जिसका परीक्षा में परिणाम खराब आया है, या जो किसी प्रतियोगिता में हार गया है — वह खुद को भीड़ में तुच्छ और अकेला महसूस करने लगता है। उसके मन में कई सवाल उठते है — क्या मैं कभी सफल हो पाऊंगा? क्या मैं भी इस भीड़ में मुस्कुराते हुए खड़ा हो सकूंगा? या फिर मैं हमेशा पीछे ही रह जाऊंगा?
यहीं से शुरू होती है "एक अदृश्य हार" — जो बाहर से नहीं दिखती, लेकिन भीतर तक तोड़ देती है। यह हार सोशल मीडिया की तुलना से जन्म लेती है, असफलता के बाद मिलने वाले तानों से बढ़ती है और अंततः आत्म-संदेह में बदल जाती है। लेकिन सच्चाई यह है कि सोशल मीडिया पर जो चमकते चेहरे दिखते हैं, वे अधूरी कहानियां होते हैं। हर मुस्कुराहट के पीछे एक संघर्ष छिपा होता है — जिसे न तो पोस्ट के रूप में दिखाया जाता है, ना ही उसकी वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड होती है।
ऐसी ही तीन कहानियां — अंकित, श्रेया और मयंक की हैं। जिसमें तीनों का सपना अलग था, रास्ता अलग था, पर संघर्ष एक जैसा था — और यही उन्हें प्रेरणा का स्रोत बनाता है।
अंकित ने अपने जीवन का लक्ष्य तय किया था — भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में चयनित होना। उसने पूरी निष्ठा के साथ तैयारी की और तीन बार UPSC की परीक्षा दी, लेकिन दुर्भाग्यवश हर बार असफल रहा। हर असफल प्रयास के साथ उसके जीवन में निराशा बढ़ती गई। घरवालों ने ताने मारने शुरू कर दिए — "अब छोड़ दे ये ख्वाबों की दुनिया।" पुराने दोस्त भी साथ छोड़ने लगे। चारों ओर तिरस्कार और भीतर एक गहराता सन्नाटा।
एक दिन अंकित थका-हारा, चुपचाप बस स्टॉप पर खड़ा था। उसकी आंखों में असफलता की बेचैनी और मन में निराशा का सूनापन था। तभी एक 12–13 साल का बच्चा दौड़ते हुए आया, जिसे वह पहले ट्यूशन में पढ़ाया करता था। वह मासूम चेहरा मुस्कराते हुए बोला — "भैया, आपको याद है न? जब आप हमें पढ़ाते थे तो हमेशा कहते थे कि हार मत मानो… मेहनत कभी बेकार नहीं जाती। मैंने आपकी बात मानी और मेरे नंबर पहले से अच्छे आए। आप ही तो मेरे लिए सबसे बड़े प्रेरणा थे… अब आप ही ऐसा सोचने लगे क्या?"
उस क्षण ऐसा लगा जैसे कोई सोई हुई आत्मा को झकझोर गया हो। अंकित के भीतर कुछ टूटने के बजाय अचानक जुड़ने लगा। उसे पहली बार अहसास हुआ कि उसकी लड़ाई सिर्फ खुद से नहीं थी — उसके सपनों से, उसके छात्रों से और उस विश्वास से भी थी, जो उसने कभी औरों को दिया था। उस दिन के बाद अंकित ने सोशल मीडिया से दूरी बना ली, शिकायतें छोड़ दीं और पूरे समर्पण एवं अनुशासन के साथ एक बार फिर पढ़ाई में लग गया।
नतीजा — चौथे प्रयास में उसने UPSC परीक्षा पास कर ली और भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हुआ। आज वह न केवल एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी है, बल्कि गाँव-गाँव जाकर युवाओं को प्रेरित करता है, उन्हें मार्गदर्शन देता है और अपने संघर्ष की कहानी सुनाकर उनमें नया विश्वास जगाता है।
इसी तरह श्रेया भी अपने जीवन में कुछ अलग करना चाहती थी — नौकरी नहीं, बल्कि खुद का एक व्यवसाय। उसका सपना था कि वह ऐसा स्टार्टअप शुरू करे, जो न केवल सफल हो, बल्कि समाज में एक सकारात्मक बदलाव भी लाए।
कॉलेज में पढ़ते हुए ही उसने अपने विचारों पर काम करना शुरू कर दिया था। वह अक्सर योजनाएं बनाती, स्केच तैयार करती और यूट्यूब-वीडियो से बिज़नेस मॉडल समझने की कोशिश करती।
कॉलेज के बाद जैसे ही श्रेया ने अपने स्टार्टअप की शुरुआत की, उसके सामने कठिनाइयों की झड़ी लग गई। निवेशक नहीं मिला, साथ देने वाले लोग धीरे-धीरे दूर होते गए और जो थोड़ा बहुत शुरू किया भी था, वह भी तीन बार बुरी तरह असफल हुआ।
बाज़ार में लोग उसके बारे में कहने लगे कि "तुम लड़की हो, ये सब तुम्हारे बस की बात नहीं… घर बसाओ, यही सही समय है।" रिश्तेदारों के ताने और समाज की आशंकाएं श्रेया के कानों में गूंजती थीं, लेकिन उसकी आंखों में जो सपना था — वह अब भी जीवित था, भले ही कमजोर हो चला था।
एक शाम वह बालकनी में चुपचाप बैठी थी, तभी उसकी माँ उसके पास आईं। उन्होंने बिना कुछ कहे चुपचाप उसके कंधे पर हाथ रखा और बोलीं — "बेटी, अगर तू आज झुक गई, तो ये दुनिया तुझे बार-बार झुकाएगी। तूने अपने दम पर चलना चुना है — तो अब ठहरना मत। अगर तेरी सोच बड़ी है, तो रास्ते भी खुद-ब-खुद बनेंगे।"
उस एक पल ने श्रेया की हिम्मत को जैसे फिर से जगा दिया। अगले दिन उसने नया प्लान तैयार किया, गलतियों से सीखा और एक बार फिर से अपनी शुरुआत की। इस बार न कोई दिखावा था, न किसी को साबित करने का इरादा — बस खुद से एक वादा था कि "मैं रुकूँगी नहीं।"
धीरे-धीरे उसका प्रयास रंग लाने लगा। स्थानीय बाज़ार में उसकी पहचान बनी, फिर ग्राहक बढ़े और फिर उसके काम ने ऐसा विस्तार लिया कि वह अब 500 से अधिक महिलाओं को स्वरोजगार दे रही है। आज श्रेया सिर्फ एक सफल उद्यमी ही नहीं है, बल्कि महिलाओं के लिए संभावनाओं की मिसाल बन चुकी है। जो दुनिया उसे कमजोर समझती थी, अब वही लोग उसकी उपलब्धियों पर तालियां बजाती है।
इसी तरह मयंक का सपना था कि वह क्रिकेट की दुनिया में देश का प्रतिनिधित्व करके परिवार और देश का नाम रौशन करे। उसने लोकल टूर्नामेंट्स में शानदार प्रदर्शन किया और ज़िला स्तर पर चुना गया। लेकिन एक मैच में लगी गंभीर चोट ने उसके सारे सपनों पर विराम लगा दिया। डॉक्टर ने कहा — एक साल क्रिकेट से दूरी बनानी होगी। मयंक टूट गया। कमरे में बंद हो गया, प्रैक्टिस छोड़ दी।
सोशल मीडिया पर उसके साथी नेशनल कैंप में थे और वह घुटनों के दर्द के साथ अकेला। तभी एक दिन उसके मोहल्ले के बच्चों ने उसे आवाज़ दी — “भैया, हमें भी क्रिकेट सिखाओ ना… आप तो हमारे हीरो हो!” उस मासूम आग्रह में जो उम्मीद थी, उसने मयंक को भीतर से हिला दिया। उसी दिन उसने कोचिंग शुरू की — बिना फीस, बिना सुविधा। धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ी और आज उसके दो छात्र राज्य टीम में हैं। मयंक अब खुद खिलाड़ी नहीं है, लेकिन वह औरों को खिलाड़ी बना रहा है — और यही उसकी जीत है।
इन तीनों की कहानियां यही कहती हैं — हार कोई अंत नहीं, वह सिर्फ एक पड़ाव है। अगर हम रुकें नहीं तो वहीं से नए रास्ते की शुरुआत होती है। आज के युवाओं को यह समझना होगा कि ज़िंदगी कोई 30 सेकंड की इंस्टाग्राम रील नहीं है। यहां हर दिन की मेहनत, हर रात की बेचैनी और हर असफलता को पार करना होता है। यहां कोई शॉर्टकट नहीं है — केवल समर्पण, धैर्य और निरंतर प्रयास है।
समस्या यह नहीं कि युवा अयोग्य हैं — बल्कि यह है कि उन्हें किसी ने सिखाया ही नहीं कि असफलता भी जीवन का हिस्सा है। कोई उन्हें नहीं बताता कि गिरना गलत नहीं है — लेकिन गिरकर वहीं रुक जाना सबसे बड़ी हार है। यही इस लेख का सार है — “हारो मत, ठहरो मत और कभी खुद को कम मत समझो।”
आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है — सोच बदलने की। हमें सहारा नहीं, ऐसा हौसला चाहिए जो हमें हर हाल में संभाले रखे। अस्थायी दिखावे से हटकर स्थायी उद्देश्य की तलाश ज़रूरी है। हर युवा के भीतर वह आग है जो समाज को बदल सकती है — बस उसे बुझने से रोकना होगा।
"उठिए… अपने भीतर के अंकित, श्रेया और मयंक को जगाइए। भीड़ का हिस्सा बनने के बजाय वह राह चुनिए जो कठिन है — क्योंकि वही राह एक दिन आपको दुनिया के सामने सिर उठाकर जीने का साहस प्रदान कर सकती है। सपनों से संघर्ष तक का यह सफर आसान नहीं होता — लेकिन यही सफर आपको आपकी असली पहचान देता है।"
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